पॉल ई लिट्ल द्वारा लिखित
हमारे लिए, निर्णायक रूप से यह जानना कि ‘क्या परमेश्वर का अस्तित्व है?’, और ‘वह किस प्रकार का है’, तब तक असंभव है, जब तक परमेश्वर स्वयं पहल नहीं करता और अपने आप को प्रकट नहीं करता।
परमेश्वर के रहस्योद्घाटन का कोई सुराग ढ़ूँढने के लिए हमें इतिहास के पन्नों पर दृष्टि डालनी होगी। इसका एक स्पष्ट चिह्न है। 2000 साल पहले, पैलेस्टाइन के एक अव्यस्त गाँव के अस्तबल में, एक बच्चे का जन्म हुआ। आज पूरा संसार यीशु मसीह के जन्म का उत्सव मना रहा है, और सही कारण से - उनके जीवन ने इतिहास का मार्ग बदल दिया।
हमें बताया गया है कि “आम आदमी यीशु की बातों को प्रसन्नतापूर्वक सुनते थे।” और “वह उन्हें यहूदी धर्म नेताओं के समान नहीं, बल्कि एक अधिकारी के समान शिक्षा दे रहा था।”1
मगर, जल्द ही यह स्पष्ट हो गया कि वह अपने बारे में बहुत ही चौकानेवाला और चमत्कारिक बयान दे रहा था। उसने अपने आप को विलक्षण शिक्षक और पैगंबर से ज्यादा महान बताया। उसने साफ शब्दों में कहा कि वह परमेश्वर है। उसने अपनी शिक्षा में अपनी पहचान को मुख्य मुद्दा बनाया।
अपने अनुयायीयों से, यीशु ने सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न पूछा, “और तुम क्या कहते हो कि मैं कौन हूँ?” तब शमौन पतरस ने उत्तर दिया, “कि तू जीवते परमेश्वर का पुत्र मसीह है।”2 यह सुनकर यीशु मसीह हैरान नहीं हुआ, न ही उसने पतरस को डाँटा। उसके विपरीत, यीशु ने उस की सराहना की!
यीशु मसीह अक्सर “मेरे पिता” कहकर परमेश्वर को संबोधित करते थे, और उनके सुननेवालों पर उनके शब्दों का पूरा प्रभाव पड़ता था। हमें बताया गया है, “इस कारण यहूदी और भी अधिक उस को मार डालने का प्रयत्न करने लगे; क्योंकि वह न केवल सब्त (विश्राम दिन) के दिन की विधि को तोड़ता, परन्तु परमेश्वर को अपना पिता कह कर, अपने आप को परमेश्वर के तुल्य ठहराता था॥”3 एक दूसरे अवसर पर उन्होंने कहा, “मैं और मेरे पिता एक हैं।” उसी समय यहूदियों ने उसे पत्थर मारना चाहा। यीशु मसीह ने उनसे पूछा कि उसके किस अच्छे कामों के लिए वे उसे (यीशु को) पत्थर मारने के लिए प्रेरित हुए?” उन लोगों ने उत्तर दिया, “भले काम के लिये हम तुझे पत्थरवाह नहीं करते, परन्तु परमेश्वर की निन्दा के कारण, और इसलिये कि तू मनुष्य होकर अपने आप को परमेश्वर बनाता है।”4
यीशु ने स्पष्ट रूप से उन शक्तियों का दावा किया, जो केवल परमेश्वर के पास हैं। जब एक लकवा मारा हुआ व्यक्ति छत से उतारा गया, ताकि वह यीशु के द्वारा चंगा हो सके, यीशु ने कहा, “पुत्र, तुम्हारे पापों से तुम्हे क्षमा कर दिया गया है।” यह सुनकर धर्मशास्त्रियों ने तुरंत प्रतिक्रया व्यक्त की कि, “यह व्यक्ति इस तरह की बातें क्यों कर रहा है? वह परमेश्वर का अपमान कर रहा है! परमेश्वर के सिवा, कौन पापों को क्षमा कर सकता है?” तब यीशु ने उनसे कहा, "कौन सा आसान है: इस लकवे से पीड़ित आदमी को कहना कि 'तुम्हारे पाप क्षमा हो गए हैं,' या 'उठो और चलो’?”
यीशु ने आगे बोला, “परन्तु जिस से तुम जान लो कि मुझ को पृथ्वी पर पाप क्षमा करने का भी अधिकार है, उसने उस लकवे के रोगी से कहा, “मैं तुझ से कहता हूँ, उठ, अपनी खाट उठाकर अपने घर चला जा।” वह उठा और तुरन्त खाट उठाकर सब के सामने से निकलकर चला गया; इस पर सब चकित हुए।
यीशु ने इस तरह के बयान भी दिए: “मैं इसलिये आया कि वे जीवन पाएँ, और बहुतायत से पाएँ।”5 और “जगत की ज्योति मैं हूँ।”6 और उसने कई बार यह कहा कि जो कोई उस पर विश्वास करेगा, यीशु उन्हें अनन्त जीवन देगा। “और उस पर दण्ड की आज्ञा नहीं होती, परन्तु वह मृत्यु से पार होकर जीवन में प्रवेश कर चुका है।”7 “और मैं उन्हें अनन्त जीवन देता हूँ। वे कभी नष्ट न होंगे।”8
उन महत्वपूर्ण क्षणों में, जब यीशु की ज़िंदगी दाव पर लगी थी, इस तरह के दावा करने के लिए, महायाजक ने उस से सीधा सवाल किया: “क्या तू उस परम धन्य का पुत्र मसीह है?”
“हाँ, मैं हूँ,” यीशु ने कहा। “और तुम मनुष्य के पुत्र को सर्वशक्तिमान की दाहिनी और बैठे, और आकाश के बादलों के साथ आते देखोगे।”
तब महायाजक ने अपने वस्त्र फाड़कर कहा, “अब हमें गवाहों का और क्या प्रयोजन है, तुम ने यह अपमान पूर्ण बातें कहते हुए इसे सुना।”9
यीशु मसीह का परमेश्वर से सम्बंध इतना गहरा था कि उसने एक मनुष्य के उसके प्रति मनोभावों को, और परमेश्वर के प्रति उनके मनोभावों को, एक बराबर बताया। अतः, उसे जानना प्रभु को जानना था।10 उसे देखना प्रभु को देखना था।11 उसपर विश्वास करना प्रभु पर विश्वास करना था।12 उसे ग्रहण करना प्रभु को ग्रहण करना था।13 उससे बैर रखना प्रभु से बैर रखना था।14 उसका आदर करना प्रभु का आदर करना था।15
प्रश्न यह है कि, क्या वह सच बोल रहा था?
हो सकता है की यीशु ने झूठ बोला, जब उन्होने अपने आप को परमेश्वर कहा। हो सकता है कि वह जानते थे कि वह परमेश्वर नहीं है, और जान-बूझकर उन्होंने अपने सुननेवालों को धोखा दिया, ताकि अपने शिक्षण को वह एक अधिकार दे सकें। कुछ लोग ऎसा सोचते हैं। परंतु इस तर्क में एक समस्या है। जो लोग उसका दैव्य होने का इंकार करते हैं, वो तक इस बात को मानते हैं कि यीशु एक महान नैतिक शिक्षक थे। लेकिन वे इस बात को समझने में असफल रहते हैं कि दोनों बयान परस्पर विरोधी हैं। यीशु मसीह महान नैतिक शिक्षक कैसे होते, अगर, उनकी शिक्षाओं के सबसे महत्वपूर्ण विषय -- उनकी पहचान -- के बारे में वह जान-बूझकर झूठ बोलते ?
दूसरी संभावना यह है कि यीशु मसीह ईमानदार थे, पर स्वयं को धोखा दे रहे थे। आजकल, उस व्यक्ति को, जो की यह सोचता है के वह भगवान/परमेश्वर है, एक नाम से बुलाया जाता है- मानसिक रूप से विकलांग। पर जब हम यीशु मसीह के जीवन की ओर देखते हैं, तो हमें अपसामान्यता और असंतुलन का, जो कि एक मानसिक रोगी में होता है, कोई प्रमाण नहीं मिलता। बल्कि, हमें यीशु में गहरे दबाव के समय भी, असीम धैर्य दिखाई देता है।
एक तीसरा विकल्प यह है कि, तीसरे और चौथे शताब्दियों में यीशु उत्साही अनुयायियों ने उनके कहे हुए शब्दों को बढ़ा-चढ़ा के प्रस्तुत किया, और यदि यीशु उन्हें सुनते तो वह चौंक जाते । और यदि वह वापस आते, तो वह तुरंत उन्हें अस्वीकार कर देते।
यह सही इसलिए नहीं है, क्योंकि आधुनिक पुरातत्व इस बात की पुष्टि करते हैं कि मसीह की चार जीवनियाँ उन लोगों के जीवनकाल में लिखी गई थी जिन्होंने यीशु को देखा, सुना और उसके पीछे चले। इन सुसमाचार के खातों में उन विशिष्ट तथ्यों और विशेषताओं का वर्णन है, जिसकी पुष्टि उन लोगों ने की है जो यीशु के प्रत्यक्ष साक्षी थे।
विलियम एफ अलब्राइट, जो कि अमेरीका के जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय के साथ एक विश्व-प्रसिद्ध पुरातत्त्वविद् हैं, ने कहा, की ऐसा सोचने का कोई कारण नहीं है कि किसी भी सुसमाचार को 70 ए.डी. (ईसा पश्चात्) के बाद लिखा गया था। मत्ती, मरकुस, लूका और यूहन्ना द्वारा सुसमचर शुरुआत में ही लिखे जाने के कारण, उसका संचलन और प्रभाव अधिक था।
यीशु मसीह ना तो झूठे थे, और ना ही मानसिक रूप से विकलांग, ना ही उनको ऐतिहासिक सच्चाई से परे निर्मित किया गया था। केवल एक अन्य विकल्प यह हो सकता है कि यीशु मसीह पूर्ण रूप से सच्चे थे जब उन्होंने यह कहा कि वह परमेश्वर हैं।
कोई भी, कुछ भी दावे कर सकता है। ऐसे कई लोग हैं, जिन्होंने परमेश्वर होने के दावे किए। मैं परमेश्वर होने का दावा कर सकता हूँ, आप भी परमेश्वर होने का दावा कर सकते हैं। पर यदि हम ऐसा करते हैं, तो इस प्रश्न का उत्तर हम सभी को देना पड़ेगा, “हम अपने दावे को साबित करने के लिए क्या ठोस सबूत, या प्रमाण पत्र ला सकते हैं?” मेरे बारे में पूँछे तो, मेरे दावे का खंडन करने में आपको पाँच मिनट भी नहीं लगेंगे। आपके दावे का खंडन करने में भी शायद इससे ज्यादा समय न लगे। पर बात जब नासरत के यीशु मसीह की आती है, तब उनके दावे का खंडन करना इतना आसान नहीं है। उनके पास अपने दावे को पूरा करने का प्रमाण पत्र था। उन्होंने कहा, “…तो चाहे [तुम] मेरा विश्वास न भी करो, परन्तु उन कामों का तो विश्वास करो, ताकि तुम जानो और समझो कि पिता मुझ में है और मैं पिता में हूँ।”16
उनका अद्वितीय नैतिक चरित्र उनके दावे से मेल खाता हुआ था। उनकी जीवन शैली इस तरह की थी कि वह अपने शत्रुओं को अपने प्रश्नों द्वारा चुनौती दे सकते थे, “तुम में से कौन मुझे पापी ठहरा सकता है?”17 उन्हें चुप्पी मिली (कोई कुछ ना बोल सका), जब कि उन्होंने उनको संबोधित किया जिन्होंने उनके चरित्र में दोष ढूँढ़ने की चेष्टा की थी।
हम पढ़ते हैं कि यीशु मसीह को शैतान द्वारा प्रलोभित किया गया, पर हमने कभी भी उनसे कोई पाप करने की स्वीकारोक्ति नहीं सुनी। उन्होंने कभी भी क्षमा-याचना नहीं की, हालांकि उन्होंने अपने अनुयायियों से ऐसा करने को कहा।
यीशु में कोई भी नैतिक विफलता ना होने की भावना, आश्चर्यजनक है, विशेषत: जब हम यह देखते हैं कि वह उन अनुभवों के बिल्कुल विपरीत है जो संतों और मनीषियों ने पूर्णतया, उम्रभर अनुभव किए। नर और नारी जितना परमेश्वर के समीप जाते हैं, उतना ही ज्यादा वे अपनी विफलता/असफलता, भ्रष्टाचार और कमियों से अभिभूत होते हैं। एक चमकते हुए प्रकाश के निकट जितना कोई जाए, उसे अपने को स्वछ करने की आवश्यकता का अधिक एहसास होता है। साधारण मनुष्यों के लिये, नैतिक क्षेत्र में यह सत्य है।
यह भी उल्लेखनीय है कि यूहन्ना, पौलुस, और पतरस, जिनको बचपन से ही पाप की सार्वभौमता पर विश्वास करने का प्रशिक्षण मिला था, उन सभी ने यीशु मसीह के पाप रहित होने की चर्चा की “न तो उस ने पाप किया, और न उसके मुंह से छल की कोई बात निकली।”18
पिलातुस ने भी, जिसने यीशु मसीह को मृत्युदंड सुनाया, यह पूछा, “इसने ऎसा क्या पाप किया है?” भीड़ की बात सुनने के बाद पिलातुस ने यह निष्कर्ष निकाला, “मैं इस धर्मी के लहू से निर्दोष हूँ; तुम लोग जानो।” भीड़ निर्दयतापूर्वक यीशु को क्रूस पर चढ़ाने की माँग करती रही (परमेश्वर–निन्दा के लिये, परमेश्वर होने का दावा करने के लिये)। रोमी सेना नायक, जिसने यीशु को क्रूस पर चढ़ाने में हाथ बँटाया था, कहा, “सचमुच यह परमेश्वर का पुत्र था।”19
यीशु ने निरंतर अपनी शक्ति/सामर्थ और करुणा का प्रदर्शन किया। उन्होंने लँगड़ों को चलाया, गूंगों से बुलवाया और अंधों को दिखाया, और अनेक रोगियों को चांगई दी। उदाहरणस्वरूप, एक भिखारी, जो जन्म से अंधा था और जिसको सब पहचानते थे, आराधनालय के बाहर बैठता था। यीशु मसीह से चंगाई पाने के बाद, धार्मिक अधिकारियों ने भिखारी से यीशु के बारे में पूछ ताछ की। तब उसने कहा, “एक चीज मैं जानता हूँ। मैं अंधा था, पर अब मैं देख सकता हूँ!” उसने ऐलान किया। उसे आश्चर्य हो रहा था कि इन धर्म के प्राधिकारियों ने इस आरोग्य करनेवाले को परमेश्वर के पुत्र के रूप में कैसे नहीं पहचाना। “जगत के आरम्भ से यह कभी सुनने में नहीं आया कि किसी ने जन्म के अंधे की आँखें खोली हों,” उसने कहा।20 उसके लिए यह प्रमाण स्पष्ट था।
यीशु मसीह ने प्रकृति पर एक अलौकिक शक्ति का प्रदर्शन किया। केवल शब्दों द्वारा, उन्होंने गलील के समुद्र पर तेज हवाओं और लहरों वाले तूफान को शांत किया। जो नावों पर सवार थे वे अचंभा करके आपस में पूछने लगे, “यह कौन है, कि आँधी और पानी भी उस की आज्ञा मानते हैं?21 एक विवाह में उन्होंने पानी को दाखरस में बदल दिया। उन्होंने 5000 लोगों की भीड़ को पांच रोटियों और दो मछलियों से खाना खिलाया। उन्होंने एक दुखी विधवा के इकलौते बेटे को मृत से जीवित कर दिया।
लाज़र, यीशु का मित्र, मर गया था और चार दिनों तक वह कब्र में था। फिर भी यीशु ने उसे पुकारा, “हे लाज़र, निकल आ!” और उसे मृत्यु से वापस जीवित कर दिया, और अनेक लोग इस के गवाह थे। यह सबसे महत्वपूर्ण बात है कि उनके शत्रुओं ने इस चमत्कार से इनकार नहीं किया, बल्कि, उन्हें मारने का फैसला लिया। “यदि हम उसे यों ही छोड़ दे,” उन्होंने कहा, “तो सब उस पर विश्वास ले आएंगे।”22
यीशु मसीह के परमेश्वर होने का सर्वोच्च सबूत उनके मृत होने के बाद उनका पुनरुत्थान (मरे हुओं में से जी उठना) है। अपने जीवनकाल में, पाँच बार यीशु ने स्पष्ट रूप से भविष्यवाणी की कि किस विशिष्ट तरीके से उन्हें मारा जाएगा और इस बात की पुष्टि की कि तीन दिन बाद वह मृत शरीर को छोड़कर फिर जीवित हो जाएँगे।
निश्चित रूप से यह एक बड़ा परीक्षण था। यह एक ऐसा दावा था जिसे प्रमाणित करना आसान था। या तो ऐसा होता, या फिर नहीँ। या तो यह उनकी बताई गई पहचान को सच साबित कर देता, या नष्ट कर देता। और, आपके और मेरे लिए जो महत्वपूर्ण बात है, वो यह है - यीशु के पुनरुत्थान से या तो इन बातों की पुष्टि होती, या यह बयान उपहास बन जाते:
“मार्ग और सच्चाई और जीवन मैं ही हूँ; बिना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुंच सकता।”23 “जगत की ज्योति मैं हूं; जो मेरे पीछे हो लेगा, वह अन्धकार में न चलेगा, परन्तु जीवन की ज्योति पाएगा।”24 और जो मुझ पर विश्वास करेगा, “मैं उन्हें अनन्त जीवन देता हूँ…”25
तो, इस प्रकार अपने ही शब्दों में उन्होंने यह प्रमाण दिया, “मनुष्य का पुत्र, मनुष्यों के हाथ में पकड़वाया जाएगा, और वे उसे मार डालेंगे; और वह मरने के तीन दिन बाद जी उठेगा।”26
अगर यीशु मरे हुओं में से जीवित हुए, तो जो कुछ उन्होंने कहा कि वह हमें प्रदान करते हैं, वह उसे पूरा कर सकते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि वह निसंदेह पापों को क्षमा कर सकते हैं, हमें अनंत जीवन दे सकते हैं, और इस जीवन में हमारा मार्ग दर्शन कर सकते हैं। वह परमेश्वर हैं, इसलिए अब हम जान गए हैं की परमेश्वर कैसा है और हम उसके निमंत्रण को स्वीकार कर सकते हैं- उन्हें व्यक्तिगत रूप से और हमारे लिए उनके प्रेम को जानने के लिए।
दूसरी ओर, अगर यीशु मसीह मरे हुओं में से नहीं जी उठे, तो मसीही धर्म की कोई वैधता या वास्तविकता नहीं है। इसका मतलब ये सब झूठ है, और यीशु केवल एक आम आदमी थे जो कि मर चुका है। और वे लोग जो मसीही धर्म के लिए शहीद हुए, और समकालीन धर्मप्रचारक, जिन्होंने उनका संदेश दूसरों को देने में अपने प्राण तक गँवा दिए, भ्रांतिमूलक मूर्ख थे।
आइए यीशु के पुनरुत्थान के प्रमाणों पर एक नजर डालें –
यीशु ने जितने भी चमत्कारों का प्रदर्शन किया, उन्हें देखकर यह कहा जा सकता है कि वह आसानी से क्रूस से अपने आपको बचा सकते थे, पर उन्होंने ऐसा करना नहीं चुना।
बंदी बनने से पहले, यीशु ने कहा, “कोई मुझ से मेरा प्राण नहीं छीन सकता; मैं स्वयं उसे अर्पित करता हूँ। मुझे अपना प्राण अर्पित करने और उसे फिर प्राप्त करने का अधिकार है।”27
उसे बंदी बनाते समय, यीशु के मित्र पतरस ने उन्हें बचाने की चेष्टा की। परंतु, यीशु ने पतरस से कहा, “अपनी तलवार म्यान में रख ले…क्या तू नहीं जानता कि मैं अपने पिता से विनती कर सकता हूँ, और वह स्वर्गदूतों की बारह पलटन से अधिक मेरे पास अभी उपस्थित कर देगा?”28 स्वर्ग और पृथ्वी, दोनों में, उनके पास इस प्रकार की शक्ति थी। यीशु मसीह ने अपनी इच्छा से अपनी मृत्यु को स्वीकार किया।
यीशु की मृत्यु भीड़ के सामने उन्हें क्रूस पर चढ़ाकर की गई। यह रोमन सरकार का, कई शताब्दियों से चला आ रहा, यातना देकर मृत्यु देने का एक आम तरीका था। यीशु ने कहा कि यह हमारे पापों का भुगतान करने के लिए था। यीशु के विरुद्ध आरोप परमेश्वर-निन्दा (परमेश्वर होने का दावा करने का) था।
यीशु को अनेक रस्सियों से बने मोटे कोड़े से मारा गया जिसमें धातु और हड्डी के खंडित टुकड़े जड़े थे। उनका ठट्ठा उड़ाने के लिए, लंबे काँटों से बनाया गया मुकुट उनके सिर पर रखा गया। उन्होंने यीशु मसीह को यरुशलेम के बाहर, उस प्राणदण्ड के पहाड़ पर पैदल चल कर जाने के लिए मजबूर किया, जहाँ उन्हें एक लकड़ी के क्रूस पर लटकाया गया, और उनके पैरों और हाथों को क्रूस पर कीलों से ठोक दिया गया। जब तक वह मर नहीं गए, उस क्रूस पर लटके रहे। यह जानने के लिए कि वह मर चुके हैं या नहीं, उनके पंजर को बरछे से बेधा गया।
यीशु के शव को क्रूस से उतारा गया, और उसे सुगन्ध-सामग्री के साथ चादर में लपेटा गया। उन के शव को एक कब्र में, जो चट्टान में खोदी गई थी, रख दिया, और फिर कब्र के प्रवेश द्वार पर एक बड़ा पत्थर लुढ़का कर टिका दिया गया, ताकि द्वार सुरक्षित रहे।
सब जानते थे कि यीशु ने कहा था कि वह तीन दिन बाद मृत शरीर से जीवित हो उठेंगे। अतः उनकी कब्र पर प्रशिक्षित रोमन सैनिक पहरेदारों को तैनात कर दिया गया। उन्होंने कब्र के बाहर एक सरकारी रोमन मुहर लगा दी ताकि यह घोषित हो सके कि यह सरकारी संपत्ति है।
इन सब के बावजूद, तीन दिन बाद, वह पत्थर जो कि कब्र को सीलबंद कर रहा था, कब्र से कुछ दूर एक ढलान पर पाया गया। यीशु का शरीर वहाँ नहीं था। कब्र में केवल चादर पड़ी थी, बिना शव के।
इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि यीशु के आलोचक और अनुयायी, दोनों मानते हैं कि कब्र खाली थी और उनका शरीर गायब था।
शुरुआत में इस स्पष्टीकरण को परिचालित किया जा रहा था कि जब पहरेदार सो रहे थे तब उनके शिष्यों ने उनका शरीर चुरा लिया था। पर यह तथ्यहीन लगता है, क्योंकि रोमन सेना के प्रशिक्षित पहरेदारों का इस प्रकार, पहरे के समय, सो जाना मृत्युदंड के अपराध से कम नहीं था।
इसके अलावा, प्रत्येक शिष्य को (अकेला करके और विभिन्न भौगोलिक स्थानों में) यातना दी गई और शहीद किया गया, इस दावे के लिए कि यीशु जीवित थे और मरे हुओं में से जी उठे थे। पर वे अपने दावों से नहीं पलटे। कोई भी इंसान उस सच्चाई के लिए मरने के लिए तैय्यार होता है जिसको वह सच मानता है, चाहे वह वास्तव में झूठ हो। परंतु, वह उस बात के लिए नहीं मरना चाहता जो वह जानता है की झूठ है। यदि कोई ऐसा समय है जब एक इंसान सत्य बोलता है, तो वह उसकी मृत्यु की निकटता के समय पर होता है। हर शिष्य अंत तक यीशु के जी उठने का प्रचार करता रहा।
हो सकता है कि प्राधिकारियों ने यीशु के शरीर को वहाँ से हटा दिया हो? पर यह भी एक कमजोर संभावना है। उन्होंने यीशु को क्रूस पर चढ़ाया, ताकि वे लोगों को उन पर विश्वास करने से रोक सकें। अगर उनके पास यीशु का शरीर (शव) होता, तो वे उसे यरुशलेम के नगर में उसका परेड करते। एक ही बारी में वे सफलतापूर्वक मसीही धर्म को दबाने में कामयाब हो जाते। कि उन्होंने ऐसा नहीं किया, यह इस बात की महान गवाही देता है कि उनके पास यीशु का मृत शरीर नहीं था।
एक दूसरा मत यह है कि महिलाएँ (जिन्होंने सबसे पहले यीशु की खाली कब्र को देखा) व्याकुल और दुख से अभिभूत होकर सुबह के धुंधलेपन में अपना रास्ता भूलकर गलत कब्र में चली गई हों। अपनी पीड़ा में उन्होंने कल्पना कर ली कि यीशु पुनःजीवित हो गए हैं, क्योंकि कब्र खाली थी। पर इस बात में भी संदेह है क्योंकि यदि औरतें गलत कब्र में चली गईं, तो महायाजकों और धर्म के दूसरे दुश्मनों ने सही कब्र पर जाकर यीशु का शरीर क्यों नहीं दिखाया?
एक अन्य संभावना, कुछ लोगों के अनुसार, “बेहोशी का सिद्धांत” है। इस सिद्धांत के अनुसार, यीशु वास्तव में मरे ही नहीं। उन्हें भूल से मृत माना गया था, और वास्तव में थकान, दर्द, और खून की कमी के कारण वह बेहोश हो गए थे, और कब्र में ठंडक होने की वजह से उन में चेतना लौट आई। (इस हिसाब से, आपको इस तथ्य को अनदेखा करना होगा कि उसके पंजर को बरछे से बेधा गया था, ताकि यह सिद्ध किया जा सके कि वह मर चुका था।)
लेकिन, आइए हम एक क्षण के लिए यह मान लें कि यीशु को जिन्दा गाढ़ा गया और वह बेहोश थे। तो क्या यह विश्वास करना संभव है कि तीन दिन तक वह बिना भोजन या पानी के, या किसी भी प्रकार की देखभाल के, एक नम कब्र में जीवित रहे होंगे? क्या उन में इतनी ताकत थी कि अपने आप को कब्र के कपड़े से बाहर निकाले, भारी पत्थर को कब्र के मुँह से हटाएँ, रोमन पहरेदारों पर विजय पाएं, और मीलों तक उन पैरों पर चलकर जाएँ, जिनको कि कीलों से बेधा गया था? इसका कोई तुक नहीं बनता।
तो भी, केवल खाली कब्र ने अनुयायियों को यह विश्वास नहीं दिलाया कि यीशु वास्तव में परमेश्वर थे।
केवल खाली कब्र ने उन्हें यह विश्वास नहीं दिलाया कि यीशु वास्तव में मरे हुओं में से जीवित हुए, वह जीवित थे, और वह परमेश्वर थे। इन सब बातों ने भी उन्हें विश्वास दिलाया - यीशु कई बार दिखाई दिए, जीवित हाड़ माँस के व्यक्ति के रूप में, और उन्होंने उनके साथ खाना खाया, उनसे बातें कीं - विभिन्न स्थानों, विभिन्न समय, विभिन्न प्रकार के लोगों के साथ उन्होंने बात की। लूका, सुसमाचार के लेखकों में से एक, ने यीशु के बारे में कहा, “उसने अपने आपको बहुत से ठोस प्रमाणों के साथ उनके सामने प्रकट किया कि वह जीवित है। वह चालीस दिनों तक उनके समने प्रकट होता रहा तथा परमेश्वर के राज्य के विषय में उन्हें बताता रहा।”29
सुसमाचार के चारों लेखक ये बताते हैं कि यीशु को गाढ़ने के बाद वह शारीरिक रूप से उन्हें दिखाई पड़े। एक बार जब वह शिष्यों को दिखाई दिए, तो थोमा (एक शिष्य) वहाँ नहीं था। जब दूसरे शिष्यों ने थोमा को उनके बारे में बताया तो थोमा ने विश्वास नहीं किया। उसने सीधा-सीधा बोला, “जब तक मैं उसके हाथों में कीलों के छेद देख न लूँ और कीलों के छेदों में अपनी उंगलियाँ न डाल लूँ, और उसके पंजर में अपना हाथ न डाल लूँ, तब तक मुझे विश्वास ना होगा।”
एक सप्ताह बाद यीशु उन्हें फिर से दिखाई दिए। उस समय थोमा भी उनके साथ था। यीशु ने थोमा से कहा, “अपनी उंगली डाल और मेरे हाथों को देख, और अपने हाथ लाकर मेरे पंजर में डाल। संदेह करना छोड़ और विश्वास कर।” यह सुनकर थोमा ने जवाब दिया, “हे मेरे प्रभु, हे मेरे परमेश्वर।”
यीशु ने उससे कहा, “तूने मुझे देखकर, मुझमें विश्वास किया है। वे लोग धन्य हैं जिन्होंने बिना देखे विश्वास किया।”30
मसीह, जीवन को उद्देश्य और दिशा देते हैं। “जगत की ज्योति मैं हूँ,” वह कहते हैं। “जो मेरे पीछे हो लेगा वह अन्धकार में न चलेगा, परन्तु जीवन की ज्योति पाएगा।”31
कई लोग सामान्य रूप से जीवन के उद्देश्य, और विशेष रूप से अपने स्वयं के जीवन के बारे में, अंधेरे में हैं। ऐसा महसूस होता है जैसे की वो अपने जीवन में बत्ती जलाने वाला स्विच खोज रहे हैं। जो कोई भी अंधेरे में, या किसी अपरिचित कमरे में रहा है, वह असुरक्षा की भावना के बारे में बहुत अच्छे से जनता है। लेकिन, जब बत्ती जलती है, तो एक सुरक्षा की भावना होती है। ठीक ऐसे ही महसूस होता है जब हम अंधेरे से, यीशु मसीह की ज्योति में कदम रखते हैं।
दिवंगत विश्लेषी मनोविज्ञानिक, कार्ल गुसतव जंग, ने कहा, “हमारे समय की सबसे नाज़ुक समस्या, खालीपन है। हम सोचते हैं कि हमारे अनुभव, हमारा ज्ञान, रिश्ते, पैसा, सफलता, कामयाबी, प्रसिद्धी, हमें वह आनंद प्रदान करेंगे, जिस की हमें खोज है। पर हमेशा एक खालीपन रह जाता है। ये सब पूरी तरह से संतुष्ट नहीं करतीं। हम परमेश्वर के लिए बनाए गए है, और हमें तृप्ति केवल उन्ही में प्राप्त होगी।”
यीशु ने कहा, “जीवन की रोटी मैं हूँ: जो मेरे पास आता है वह कभी भूखा न होगा, और जो मुझ पर विश्वास करता है वह कभी प्यासा न होगा।”32
आप यीशु के साथ एक घनिष्ट संबंध इसी समय स्थापित कर सकते हैं। आप पृथ्वी पर, इस जीवन में परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप से जान सकते हैं, और मरने के बाद अनंत काल में। यहाँ परमेश्वर का वायदा है, जो उसने हमसे किया है:
“क्योंकि परमेश्वर ने जगत से ऐसा प्रेम रखा कि उसने अपना इकलौता पुत्र दे दिया, ताकि जो कोई उसपर विश्वास करे, उसका नाश न हो, परन्तु वह अनन्त जीवन पाए।”33
यीशु ने हमारे पापों को, क्रूस पर, अपने ऊपर ले लिया। हमारे पापों के लिए उन्होंने दंड स्वीकार किया, ताकि हमारे पाप उनके और हमारे बीच में दीवार न बन सकें। क्योंकि उन्होंने हमारे पापों का पूरा भुगतान किया, वह हमें पूर्ण क्षमा और अपने साथ एक रिश्ता प्रदान करते हैं।
यहाँ बताया गया है कि आप इस रिश्ते की शुरुआत कैसे कर सकते हैं।
यीशु ने कहा, “देख, मैं [तेरे हृदय के] द्वार पर खड़ा हुआ खटखटाता हूं; यदि कोई मेरा शब्द सुन कर द्वार खोलेगा, तो मैं उसके घर में प्रवेश करूँगा…।”34
आप यीशु मसीह को इसी समय अपने जीवन में आमंत्रित कर सकते हैं। आपके शब्द नहीं, केवल आपकी उसके प्रति प्रतिक्रिया, मुख्य है। यह जानते हुए कि उसने आपके लिए क्या किया है, और क्या कर रहा है, आप उससे कुछ ऐसे कह सकते हैं, “यीशु, मैं आप पर विश्वास करता हूँ। मेरे पापों के लिए क्रूस पर मरने के लिए आपका घन्यवाद। मैं चाहता हूं कि आप मुझे क्षमा करें और अभी इसी समय मेरे जीवन में आइए। मैं आपको जानना चाहता हूँ और आपके पीछे चलना चाहता हूँ। मेरे जीवन में आने के लिए, और मेरे साथ इसी समय से एक रिश्ता बनाने के लिए, आपका धन्यवाद।”
अगर आपने यीशु को अपने जीवन में आने का निमंत्रण दिया है, तो यीशु को और अच्छी तरह से जानने में हम आपकी मदद करना चाहते हैं। हमारी मदद के लिए कृपया निःसंकोच होकर नीचे दिए गए किसी भी लिंक पर क्लिक करें।
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► | हो सकता है कि मैं अपने जीवन में यीशु को बुलाना चाहूँ, कृपया मुझे इसके बारे में और समझाएँ… |
► | मेरा एक सवाल है … |
पॉल ई लिट्ल द्वारा लिखित Know Why You Believe (जानिए की आप विश्वास क्यों करते हैं) से रूपान्तरित, विक्टर बुक्स द्वारा प्रकाशित, कॉपीराइट (सी) 1988, एसपी पब्लिकेशन्स, वीटन, इलिनोइस 60187, की अनुमति द्वारा प्रयोग।
फ़ुटनोट: (1) मत्ती 7:29 (2) मत्ती 16:15-16 (3) यूहन्ना 5:18 (4) यूहन्ना 10:33 (5) यूहन्ना 10:10 (6) यूहन्ना 8:12 (7) यूहन्ना 5:24 (8) यूहन्ना 10:28 (9) मरकुस 14:61-64 (10) यूहन्ना 8:19; 14:7 (11) 12:45; 14:9 (12) 12:44; 14:1 (13) मरकुस 9:37 (14) यूहन्ना 15:23 (15) यूहन्ना 5:23 (16) यूहन्ना 10:38 (17) यूहन्ना 8:46 (18) 1 पतरस 2:22 (19) मत्ती 27:54 (20) यूहन्ना 9:25, 32 (21) मरकुस 4:41 (22) यूहन्ना 11:48 (23) यूहन्ना 14:6 (24) यूहन्ना 8:12 (25) यूहन्ना 10:28 (26) मरकुस 9:31 (27) यूहन्ना 10:18 (28) मत्ती 26:52,53 (29) प्रेरितों के काम 1:3 (30) यूहन्ना 20:24-29 (31) यूहन्ना 8:12 (32) यूहन्ना 6:35 (33) यूहन्ना 3:16 (34) प्रकाशित वाक्य 3:20
बाइबल के सभी संदर्भ, biblegateway.com और bible.com द्वारा अनुवादित, ऑनलाइन हिंदी बाइबल (पवित्र शास्त्र) से लिए गए हैं।